Sunday, September 29, 2019

मानवीय शरीर का नवीनीकरण — आधुनिक चिकित्सा विज्ञान व नेचुरोपैथी (Renewal of Human Body - Modern Science and Naturopathy)

Yoshinori Ohsumi
र्ष 2016 में चिकित्सा के क्षेत्र (मेडिसिन) में जापान के वैज्ञानिक योशिनोरी ओसुमी (Yoshinori Ohsumi) को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें मानव शरीर में ऑटोफेजी (Autophagy in Human Body) के क्षेत्र में नयी खोज के लिए दिया गया। शब्द ऑटोफेजीग्रीक (यूनानी) भाषा के दो शब्दों ऑटो और फेजी को मिला कर बना है। ऑटो अर्थात स्वयं को और फेजी अर्थात खा जाना। अर्थात स्वयं को खा जाना। ऑटोफेजी शरीर में होने वाली रीसाइक्लिंग (Recycling पुनः इस्तेमाल के लायक बनाना) की प्रक्रिया को कहते हैं। इस प्रक्रिया के कारण ही पुरानी कोशिकाएं नष्ट होतीं हैं और नई बनतीं हैं। ऑटोफेजी एक प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली है जो शरीर को जीवित रखने में सहायता करती है। यह शरीर को बिना भोजन के, न केवल क्रियाशील रहने में सहायता करती है, बल्कि भिन्न-भिन्न तरह के बैक्टीरिया और वायरस के साथ लड़ने में सहायता भी करती हैं। ऑटोफेजी के नाकाम होने के कारण ही बुढ़ापा और पागलपन जैसी बीमारियाँ बढ़ती हैं। इस खोज से भविष्य में कैंसर, शक्कर रोग और पार्किंसन जैसी बीमारियों का इलाज करने में मदद मिलेगी।

हम जानते हैं कि हमारे शरीर को क्रियाशील रहने के लिए ग्लूकोज़ की आवश्यकता होती है। जब भोजन हज़म होता है तो वो ग्लूकोज़ (Glucose) में तबदील हो कर खून में आता है। जब खून में ग्लूकोज़ समाप्त हो जाता है तो इस की पूर्ति यकृत (Liver — लिवर/जिगर) व मांसपेशियों (Muscles) में संग्रहित ग्लाइकोजन (Glycogen) से होती है। जब ग्लाइकोजन भी समाप्त हो जाता है तो शरीर में संग्रहित वसा (Fat) पिघलनी शुरू हो जाती है और इस क्रियाशीलता को जारी रखती है और इस के बाद प्रोटीन (Protein) का इस्तेमाल शुरू हो जाता है। हम जानते हैं कि हमारा शरीर बहुत सारी छोटी-छोटी कोशिकाओं से मिल कर बना हुआ है। कोशिकाओं के अंदर भी बहुत सारे भाग होते हैं जिन्हें सेल-और्गेनेल्ल (Cell Organelle — कोशिका-अंगक) कहा जाता है। प्रत्येक सेल-और्गेनेल्ल का अपना एक विशेष कार्य होता है। जैसे राइबोसोम (Ribosomes) प्रोटीन बनाते हैं। गॉल्जी काय (Golgi Bodies) प्रोटीन व वसा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले कर जाते हैं। इसी तरह से एक बहुत ही महत्वपूर्ण और्गेनेल्ल है लाइसोसोम(Lysosome) जिस का काम खराब अथवा अपनी आयु पूरी कर चुके सेल-और्गेनेल्ल को खाना होता है। इस के अतिरिक्त इस का काम सेल के अंदर जमा फालतू तत्त्व, जो शरीर को नुकसान पहुंचा सकते है, को खा कर हज़म करना होता है, जिसके फलस्वरूप नए सेल-और्गेनेल्ल का निर्माण होता है।

सब से उत्तम औषधि आराम
व उपवास है।
– बेंजामिन फ्रेंकलिन (महान
वैज्ञानिक, खोजी व लेखक)
योशिनोरी ओसुमी ने अपने इस सिद्धांत में बताया कि ऑटोफेजी को अपने शरीर में शुरू करने और इसे सक्रिय रखने के लिए हमें स्वयं को उपवास (व्रत) अथवा फास्टिंग (Fasting) की स्थिति में ले कर आना है। उन्होंने बताया कि फास्टिंग की स्थिति में, जब हम भोजन ग्रहण करना बंद कर देते हैं, तो हमारी शरीर प्रणाली इसे एक इमरजेंसी (आपातकालीन) के तौर पर देखते हुए शरीर की रक्षा करनी शुरू कर देता है, इस में आए हुए विकारों को दूर करने की प्रक्रिया में जुट जाती है। इस के फलस्वरूप हमारा शरीर स्वयं की मरम्मत (Self-repairing — सेल्फ-रिपेयरिंग) एवं स्वयं की सफाई (Self-cleaning — सेल्फ-क्लीनिंग) की अवस्था में चला जाता है। इस अवस्था में शरीर के अंदर जमा किसी भी तरह की गंदगी, सेलों के अंदर जमा कोलेस्ट्रॉल, स्वतंत्र-कण (Free-radicals — फ्री-रेडिकल्ज़) और खराब प्रोटीन – जिन का शरीर के भीतर कोई काम नहीं है, वो केवल सेलों का नुकसान करेंगे, उन्हें नष्ट करेंगे और शरीर में बीमारियाँ ले कर आएंगे – को बाहर निकालने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। इस तरह शरीर से किसी भी तरह के ज़हरीले पदार्थ को बाहर निकालने का यह सब से श्रेष्ठ व सही तरीका है।

उपवास सब से महान इलाज 
है – अपने अंदर मौजूद डॉक्टर।
पैरासेलसस (आधुनिक चिकित्सा
विज्ञान का पिता)
नेचुरोपैथी के अनुसार मानवीय शरीर की रचना करने वाले पाँच तत्त्वों (Five elements) – आकाश (Ether), वायु (Air), अग्नि (Fire), जल (Water) व पृथ्वी (Earth) – में आकाश तत्त्व की भूमिका सब से महत्वपूर्ण है, जो उपवास के द्वारा पेट को खाली रख कर प्राप्त होता है। पेट में खाली जगह होने पर ही खाये हुए पदार्थ को गति मिलेगी और वो पचेगा। उपवास का मुख्य उद्देश्य शरीर के पाचन तंत्र को पूरी तरह से आराम देना है। हमारे धार्मिक ग्रन्थों, धर्म गुरुओं और बड़े-बजुर्गों ने उपवास को शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता का साधन मानते हुए इसे ईश्वर की उपासना के साथ जोड़ा ताकि साधारण से साधारण मनुष्य भी इस का अनुसरण करके तंदरुस्त रह सके। जैसे नवरात्र के उपवास मौसम के बदलने से संबंधित हैं। पहली बार जब ऋतु सर्दी से गर्मी की ओर जाती है और दूसरी बार जब ऋतु सर्दी से गर्मी की ओर जाती है। अक्सर देखा जाता है कि ऋतुओं के बदलने के समय भिन्न-भिन्न प्रकार के बैक्टीरिया और वायरस पैदा होते है, और ज़्यादातर लोग सर्दी, ज़ुकाम, बुखार, चेचक, हैज़ा, पेचिश, इन्फ्लुएंजा, आदि रोगों से पीड़ित हो जाते हैं। उस समय शरीर में छिपे इन विकारों को निकालने के लिए उपवास बहुत ही ज़रूरी भी होते हैं और लाभकारी भी। इसी तरह से एकादशी के व्रत का भी वैज्ञानिक पहलू है। जिस तरह चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण बल समुन्द्र के जल पर ज्वारभाटे के रूप में प्रभाव डालता है, उसी तरह यह मनुष्य के शरीर पर, जिस में 70% से अधिक जल है, पर भी प्रभाव डालता है। चूंकि एकादशी वाले दिन (चंद्र-चक्र का ग्यारहवां दिन) यह प्रभाव सब से कम होता है, इस लिए इस दिन को शरीर की सफाई के लिए सब से उत्तम माना जाता है और किसी भी तरह के भारी भोजन से बचने की सलाह दी जाती है।

बीमारी के दौरान भोजन 
करना, बीमारी को खुराक 
देने के समान है।
हिप्पोक्रेट्स (आधुनिक चिकित्सा
विज्ञान का पिता)
परन्तु आज हमने उपवास को केवल एक प्रथा बना लिया है। उपवास के दौरान भिन्न-भिन्न तरह के तले-भुने, चटपटे, भारे, मसालेदार भोजन खाने शुरू कर दिये हैं। आज बड़ी-बड़ी नामी कंपनियों के फास्ट-फ्रेंडली (Fast-friendlyउपवास-अनुकूल) भोजन उत्पाद बाज़ार में भरे पड़े हैं। होटलों और रेस्टोरेन्टों, भोजनालयों, आदि में उपवास के नाम पर विशेष भोजन बनते हैं। इस तरह हम उपवास के वास्तविक उद्देश्य से कहीं दूर चले गए हैं। उपवास एक प्राकृतिक प्रक्रिया, प्रकृति की माँग है। पशु-पक्षी, आदि सभी जीवों को उपवास की आवश्यकता पड़ती है। रोगी पशु, रोगी मनष्य से अधिक समझदार होता है, जो रोग की अवस्था में अच्छे से अच्छे चारे को खाना तो दूर, देखना भी पसंद नहीं करता। क्योंकि वो समझता है की रोग की हालत में कुछ ग्रहण करना ज़हर के समान है, जबकि कुछ ना खा कर उपवास करना अमृत समान है। हालांकि हमारे शरीर का तंत्र इतना संवेदनशील होता है कि कुदरती तौर पर ही, बीमारी की अवस्था में, हमारी भूख मर जाती है। परन्तु बुद्धिमान होते हुए भी हम कुदरत के इस नियम को नहीं मानते और कुछ न कुछ खाते रहते हैं और जल्दी ठीक नहीं होते। जबकि चाहिए यह कि हम उस समय कुछ भी खाने से बचें ताकि जीवनी शक्ति बाहरी तत्त्वों को और रोग को शरीर से बाहर कर के ही सांस ले।

मैं अपनी शारीरिक व मानसिक 
निपुणता को बढ़ाने के लिए 
उपवास करता हूँ। 
 – प्लेटो (महान दार्शनिक)
उपवास के दौरान मनुष्य को हमेशा आशावादी होना चाहिए तथा मन शांत व स्थिर होना चाहिए। उपवास के दौरान रोगी को नियमित तौर पर, अपनी शारीरिक शक्ति के अनुसार, कसरत करते रहना चाहिए। इसी तरह से रोगी को आराम की भी सख़्त ज़रूरत है। अर्थात रोगी ना तो बिस्तर पर ही पड़ा रहे और न ही शारीरिक कार्यों में व्यस्त रहे। उपवास के दौरान शारीरिक शक्ति काफी कमज़ोर हो जाती है। इस लिए उपवास समाप्त करने के समय पूरा आत्म-संयम बरतना चाहिए। संयमित मात्रा में फलों के रस, सब्जियों के सूप, इत्यादि से शुरू कर के हल्के,आसानी से पचने वाले भोजन, और अंत में अन्न पर आना चाहिए। भोजन की मात्रा, धीरे-धीरे, पाचन शक्ति के बढ़ने के साथ साथ ही बढ़ानी चाहिए। सावधानी इस बात की होनी चाहिए कि पहले ग्रहण किए हुए भोजन के पचने के पश्चात ही अगला भोजन ग्रहण किया जाए।

एक सच्चा उपवास शरीर, मन 
व आत्मा को शुद्ध करता है।
– महात्मा गांधी (राष्ट्रपिता)
नेचुरोपैथी में उपवास सुबह अथवा शाम का, एक आहार पर अथवा फलों, दूध या लस्सी पर, लघु अथवा लंबा हो सकता है। यह ज़रूरी है कि उपवास को शुरू और समाप्त करने के तरीके, उपवास की किस्म और अवधि, उपवास के दौरान रखी जाने वाली सावधानियों के बारे में पता हो; उपवास काल के दौरान अस्थाई तौर पर आने वाले रोग-निवारण संकटों (Healing Crisis — हीलिंग क्राइसिस) और उन से निपटने के बारे में पूरा ज्ञान हो। इस लिए उपवास, विशेष तौर पर लंबे उपवास, निपुण नेचुरोपैथी चिकित्सक की सलाह व देख-रेख में ही रखने चाहिए। हमारे राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी – जो स्वयं नेचुरोपैथी के एक बड़े समर्थक व चिकित्सक रहे हैं और जिन्होंने 1946 में पुणे के उर्ली कंचन में सब से पहले नेचुरोपैथी केंद्र व हस्पताल की स्थापना की – ने अपने 79 वर्ष के जीवन काल में 1341 दिन (तकरीबन पौने चार वर्ष) उपवास किया, जिस में तीन बार 21-21 दिन के उपवास शामिल हैं और जीवन भर तंदरुस्त रहे। आयुर्वेद के अनुसार लंघनम परम औषधम अर्थात उपवास एक ऐसी औषधि है जैसी संसार में कहीं नहीं मिलती। इस से शरीर में से ज़हरीले पदार्थ बाहर निकलते हैं और खून साफ होता, जिसके फलस्वरूप भयानक से भयानक रोग भी ठीक हो जाते हैं और लंबी आयु की प्राप्ति होती है।

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